भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के नियमों के अनुसार, किसी बैंक लोन को NPA (Non-Performing Asset) घोषित करने का समय निर्धारित किया गया है। यदि कोई कर्जदार अपनी लोन की किस्तें लगातार 90 दिनों तक नहीं चुकाता है, तो वह लोन एनपीए की श्रेणी में आ जाता है।
अन्य वित्तीय संस्थानों के लिए यह अवधि 120 दिनों की हो सकती है। एनपीए बैंक और कर्जदार, दोनों के लिए नुकसानदायक होता है। एनपीए बनने के बाद कर्जदार के सिबिल स्कोर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे भविष्य में उसे किसी अन्य बैंक से लोन लेने में परेशानी का सामना करना पड़ता है।
NPA बनने की प्रक्रिया
जब कोई कर्जदार अपनी लोन की किस्तें समय पर नहीं चुकाता, तो बैंक द्वारा उसे रिमाइंडर और नोटिस भेजा जाता है। यदि यह प्रक्रिया 90 दिनों तक जारी रहती है और कर्जदार किस्तों का भुगतान नहीं करता, तो बैंक उस लोन को एनपीए घोषित कर देता है। एनपीए की स्थिति बैंकिंग प्रणाली के लिए बड़ी समस्या बन सकती है, क्योंकि इससे बैंकों की पूंजी फंस जाती है।
NPA के प्रकार
आरबीआई के अनुसार, एनपीए तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है:
- सबस्टैंडर्ड असेट्स: वह कर्ज जो 12 महीने तक एनपीए की स्थिति में रहता है।
- डाउटफुल असेट्स: 12 महीने के बाद, यदि कर्ज वापस नहीं मिलता, तो इसे डाउटफुल असेट्स की श्रेणी में रखा जाता है।
- लॉस असेट्स: लंबे समय तक बकाया रहने पर, जब बैंक को यकीन हो जाता है कि कर्ज वसूला नहीं जा सकेगा, तो इसे लॉस असेट्स कहा जाता है।
NPA का कर्जदार पर प्रभाव
एनपीए घोषित होने का सबसे बड़ा असर कर्जदार की सिबिल रेटिंग पर पड़ता है। सिबिल रेटिंग खराब होने से भविष्य में कर्ज लेने की संभावना लगभग समाप्त हो जाती है। एनपीए की स्थिति में कर्जदार का सिबिल स्कोर गिर जाता है। सिबिल स्कोर का सीधा संबंध किसी व्यक्ति की क्रेडिट योग्यता से होता है। खराब सिबिल स्कोर के कारण भविष्य में किसी भी तरह का लोन लेने में दिक्कत होती है। यहां तक कि यदि लोन मिल भी जाता है, तो ब्याज दरें बहुत अधिक होती हैं।
यदि कर्जदार बार-बार रिमाइंडर और नोटिस के बावजूद भुगतान नहीं करता, तो बैंक उसकी संपत्ति जब्त कर लेता है। इसके बाद संपत्ति की नीलामी कर दी जाती है, ताकि बैंक अपने कर्ज की भरपाई कर सके।
एनपीए का बैंकिंग प्रणाली पर प्रभाव
एनपीए का बढ़ना बैंकों के लिए हानिकारक है। यह बैंक की पूंजी को फंसा देता है, जिससे उनका लिक्विडिटी फ्लो बाधित होता है। बैंकों को नए लोन देने में कठिनाई होती है और उनकी वित्तीय स्थिति कमजोर हो जाती है। एनपीए का सीधा असर बैंक के बैलेंस शीट पर पड़ता है। NPA बढ़ने से बैंक को अपने रिजर्व फंड का इस्तेमाल करना पड़ता है। इससे बैंक की लाभप्रदता कम होती है। जब एनपीए बढ़ता है, तो बैंक नई लोन योजनाओं को शुरू करने या विस्तार करने में हिचकिचाते हैं। इससे आर्थिक गतिविधियां भी धीमी हो जाती हैं।
एनपीए प्रबंधन के लिए कदम
बैंक NPA की समस्या से निपटने के लिए कई उपाय करते हैं। इनमें कर्जदार को समय पर रिमाइंडर भेजना, पुनर्गठन योजनाएं लागू करना और ऋण वसूली एजेंसियों की मदद लेना शामिल है। बैंक कर्जदार को कर्ज चुकाने में मदद करने के लिए पुनर्गठन योजनाएं पेश कर सकते हैं। इसके तहत लोन की अवधि बढ़ाई जा सकती है या ब्याज दरें कम की जा सकती हैं। यदि कर्जदार किसी भी परिस्थिति में लोन नहीं चुका पाता, तो बैंक के पास उसकी संपत्ति की नीलामी करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचता।
FAQs
Q1: NPA कब बनता है?
जब कोई कर्जदार अपनी लोन की किस्तें 90 दिनों तक नहीं चुकाता, तो वह लोन एनपीए घोषित हो जाता है।
Q2: एनपीए का सिबिल स्कोर पर क्या असर पड़ता है?
NPA बनने से सिबिल स्कोर खराब हो जाता है, जिससे भविष्य में लोन लेना कठिन हो जाता है।
Q3: क्या NPA घोषित होने के बाद भी लोन चुकाया जा सकता है?
हां, लेकिन बैंक इससे संबंधित अतिरिक्त शुल्क और ब्याज दरें जोड़ सकता है।
Q4: NPA से बचने के लिए क्या करें?
समय पर अपनी लोन किस्तें चुकाएं और किसी समस्या के दौरान तुरंत बैंक से संपर्क करें।
Q5: बैंक एनपीए को कैसे संभालता है?
बैंक एनपीए को वसूलने के लिए पुनर्गठन योजनाएं लागू करता है, ऋण वसूली एजेंसियों की मदद लेता है और अंततः संपत्ति की नीलामी करता है।